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Sunday 2 December 2012

डा. रघुनाथ मिश्र की चुनिन्दा गज़लेँ



डा. रघुनाथ मिश्र की चुनिन्दा ग़ज़लें

मिरा  अस्तित्व- मिरी सांस व धड़कन तुम हो.
ये  तरक्की -ये खुशी गम -ये उलझन तुम हो.

जब  भी  भटकूंगा, अंधेरों  में, कभी  राहों में,
मैं ये समझूंगा, मिरे हित में, वो  अड़चन तुम हो .

तुम्हारे   प्यार  का   असर, यकीँ   दिलाता है.
मिरी रुनझुन,मिरी झिक-झिक , मिरी तड़पन तुम हो.

धरती  पे  नृत्य- नित्य, दिख  रहे हों जहां साफ,
ये  मिरे दिल  की परख है, कि वो  दर्पन तुम  हो.

जीवन   है इक   किताब, जिसे  पढ़   रहे हैं लोग

खुशियों   की  महक, दर्द   का  क्रंदन   तुम  हो.

प्रेम- दया- क्षमा  पर , हमलों   का है   ये   दौर,
इन्हीँ जुल्मो सितम  के मान का, मर्दन् तुम हो.

जब- जब  पडी  आवाज, संकटोँ  के  दौर  मेँ,
गर्दन   के  बदले  देश, वो  गर्दन  तुम   हो.
-  जन कवि डा. रघुनाथ मिश्र.

ग़ज़ल
हमें जरूरत प्यार की.
याद आती है यार की.

जीतों से खुश हूँ नहीं,
फ़िक्र मुझे है हार की.

लम्बाई बढ्ती गयी,
भूखे  पेट  कतार की.

सुने बिना गायब हुए,
प्रस्तुति चंद अस्सार की.

खामोशी   पसरी   गज़ब,
आंधी   अत्याचार   की.

जो  भी चाहो  कर डालो.
कुछ न चले सरकार की.
         ०००

जन कवि डा रघुनाथ मिश्र

ग़ज़ल
बार-बार दिल को लगता है,बदल गए हो तुम.
निराधार  ही  बचकाने में,दहल  गए हो तुम.
पूर्ण किये बिन ज्ञान-प्रक्रिया,चढ़े शिखर लेकिन,
अधकचरे आधार के चलते,फिसल गए हो तुम.
अपनी ही धुन में और मद में,बिन जांचे-परखे ही,
सम्मोहित अनजान डगर पे, निकल ,  गए हो तुम.
मन ने चाहा- दिल ने रोका, मन की ही मानी लेकिन,
नासमझी   में समझ   बना ली, संभल गए हो तुम.
सोच-समझ  पुरुषार्थ  करो, विश्वास  करो  दिल  में,
फिर   देखो   हर  इम्तिहान में, सफल गए हो तुम.
गलत  फहमियों के  चलते ही, दिल  पर मन हावी.
बस  थोड़ी  ऊष्मा से हिम सा ,पिघल  गए हो तुम.
भूखे-नंगे-आहत   जन को,खूब  परोसा   आश्वासन.
कथित-सुखद उन वादों से  खुद टहल  गए हो तुम.
चंद   पलों की   कुछ बातों में,दिल में उतर   गए,
पेशेवर   जादूगर से, युँ  बहल   गए   हो   तुम.
जन कवि डा. रघुनाथ मिश्र  

 ग़ज़ल

लेखनी है लेखनी,रोटी नहीं मेरी.
बात बहुत बड़ी है,छोटी नहीं मेरी.

साफ़-साफ़ कह डाला, बस यूँ ही,
अब है मुसीबत में, लंगोटी मेरी.

दिक्कत न कभी कोई, पेश आई है,
कारण कि लिखावट, बड़ी मोटी मेरी.

अकाल मृतु ले गयी, उसकी  माँ को,
रोई  बडी, संवरी  नहीं, चोटी   मेरी.

ठीक   ही  आते रहे,  परिणाम सब्,
नियत  ना  रही , कभी  खोटी  मेरी .

देश   की   धरोहर हैं,    ये   सब,
रुधिर, माश ,  साँसें , बोटी    मेरी.

फरेबियोँ के साथ कभी भी निभी  नहीं,
आदत  है  यही  दोस्तों, खोटी  मेरी.
           ०००
जन कवि डा. रघुनाथ मिश्र
संपर्क: ३-के-३ओ, तलवण्डी, कोटा-३२४००५
दूरभाष: ०७४४-२४३०२०१ मोबा:०९२१४३१३९४६
याहू मेल पता:raghunathmisra@ymail.com



                ग़ज़ल
है असली सुंदरता भीतर.
कर पैदा तत्परता भीतर.

कुदरत की रचना बहुरंगी,
हो तुझमें समरसता भीतर.

कुछ भी बना-न बन पायेगा,
कायम यदि बर्वरता भीतर.

इधर-उधर है जिसे ढूढता,
जग का पालनकर्ता भीतर.

कर विश्वाश मिलेगा समुचित,
अर्जित कर ले दृढ़ता  भीतर.

बाहर तों  लेना-देना बस,
इन्सां जीता-मरता भीतर.

क्या देगी यात्रा बाहर की,
अंतर्मुखी सफलता भीतर.

जीवन मरुथल पाजाये मधु,
खुद में भरे मधुरता भीतर.

पूरी उम्र खुशी की खातिर,
भटका बाहर-तड़पा भीतर.
       ०००
जन कवि डा. रघुनाथ मिश्र
३-के-३०,तलवण्डी,
कोटा-३२४००५(राज.)
मोबा.०९२१४३१३९४६








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